” चिंगारी “
कहीं तो आग थी,
जहां से एक चिंगारी उठी,
कहीं से कुछ हवा चली,
एक और आग भड़क उठी ।
कुछ समय बीत चला,
हवा तो गुजर गई जाने किस ओर,
अपनी धुन में,
चिंगारी भी राख हो गई,
खाक में मिल कर ।
लेकिन,
उस घर का क्या ?
जिसकी जड़ें तक सुलग गईं ।।
कैसे उठी चिंगारी ?
कहां बहा ले गई हवा ?
किसका घर जला ?
इससे कोई मतलब नहीं,
इसका कोई मतलब नहीं,
मतलब तो बस इतना है,
जो घर जल गया,
बनेगा कैसे ?
जो रिश्ता टूट गया,
जुड़ेगा कैसे ?
यूं तो वक्त,
बड़े बड़े घाव भर देता है,
अनजाने में लगे जख्म भी,
सी देता है ।
पर पश्चाताप के आंसू,
बड़े बड़े गम के पहाड़ों को भी,
पिघला देता है ।
कभी कभी भावावेश में,
या किसी खुमारी में आकर,
कुछ ऐसा हो जाता है,
जिसकी इजाजत,
किसका दिल नहीं देता है ।
लेकिन देर सवेर,
उसका एहसास,
दिल झकझोड़ जाता है ।
क्या करें,
क्या न करें,
दिल समझ नहीं पाया है ।
अगर कोई अंजान है तो,
उसे वक्त पर छोड़ देना
बेहतर होता है ।
अगर कोई अपना है तो,
उसे मना लेना ही,
बेहतर होता है ।।
मिलन ” मोनी “
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