इस बस्ती से ही शायद,
वह चली गयी है,
आँगन की तुलसी तक,
देखो झुलस गयी है !
सूरज की पहली किरण,
आई नहीं जगाने,
पुरवाई की दस्तक तक,
आई नहीं बुलाने,
सावन की बदरी तक,
सूखी गुज़र गयी है !!
इस बस्ती से ही शायद,
वह चली गयी है !!
बस्ती में, गलियों में,
चहल-पहल नहीं रही,
पीपल की छाव तले,
शीतलता नहीं रही,
प्यासी बछिया तक,
देखो बिलख गयी है !!
इस बस्ती से ही शायद,
वह चली गयी है !!
सूखे खेत, सरोवर सूखे,
तन भूखे, मन भी भूखे,
खुशहाली के पत्ते सूखे,
उम्मीदें तक,
अब तो बिखर गयीं हैं !!
इस बस्ती से ही शायद,
वह चली गयी है !!
इस बस्ती से ही शायद,
वह चली गयी है !
आँगन की तुलसी तक,
देखो झुलस गयी है !!
very nice kavita
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Thanks Mukul bhai
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welcome
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आपकी कविता बहूत अच्छी लगी पर कविता के अन्त तक प्रश्न बना हुआ है, कौन?…
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वही, जिसके आने से बहार आती है और जाने से खिजा , यानी प्रियसी
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